महिषासुर के कितने ठिकाने !!!
प्राचीन भारतीय समाज में वृक्षों, जन्तुओं, नदियों की पहचान पर नामवाची संज्ञाएँ बनती रही हैं। चाहे व्यक्तिनाम हो, समूह नाम हो या स्थाननाम हो। जैसे सैन्धव, नार्मदीय, (सिन्धु, नर्मदा से) पीपल्या, बड़नगर, इमलिया, वडनेरकर (पीपल, इमली, वट से) गोसाईं, घोसी, गोमन्तक, गोवा (गाय से), हिरनखेड़ा, हिरनमगरी, हरनिया (हिरण से) आदि अनेक संज्ञाएँ सामने आती हैं।
ताज़ा महिषासुर प्रसंग में महिषासुर-दुर्गा को लेकर पाण्डित्य बह रहा है। आख्यानों के आख्यान रचे जा रहे हैं। इन मिथकीय आधारों का उल्लेख धार्मिक साहित्य में सर्वाधिक हुआ है। लोक ने अपनी कल्पना से इसमें बहुत कुछ जोड़ा। वह सब भी धार्मिक-सांस्कृतिक आधार बनता गया। मगर अब तो पुरातात्विक या नृतत्वशास्त्रीय स्थलों को भी मिथकों का प्रमाण मानते हुए मनमानी व्याख्या सामने आ रही हैं। यानी अगर सरस्वती देवी का दस सदी पुराना मन्दिर मिल जाए तो इसे पुरातात्विक प्रमाण मान लिया जाना चाहिए कि सरस्वती देवी थीं।
वेद-पुराण के प्रमाणों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषित करने की ज़रूरत होती है। अनेक लोगों ने यह काम किया है। परम्पराओं, मान्यताओं और आख्यानों की तह में जाकर ही जनजातीय समाज और हिन्दूसंस्कृति की गहन बुनावट को समझा जा सकेगा। इस विषय पर डॉ भगवान सिंह जैसे विद्वान ही आधिकारिक तौर पर बेहतर लिख सकते हैं।
हम सिर्फ़ यही कहना चाहते हैं कि असुर, राक्षस जैसे नामों को लेकर एक नकारात्मक कल्पना हमारे समाज का दोष है। शिक्षानीति में भी इस पर ध्यान नहीं दिया गया। मूलतः ये जातीय समूह रहे हैं और अलग अलग कालखण्डों में ये प्रभावशाली रहे हैं, बात इतनी भर है। कल की अनेक क्षत्रिय जातियाँ आज हीन सामाजिकता झेल रही हैं। बुंदेलखंड पर राज करने वाले खंगार क्षत्रिय अब कोटवार या चौकीदार के तौर पर जाने जाते हैं।
देशभर में पसरी पड़ी भैंस या महिष की संज्ञा वाली बस्तियों को आज भी पहचाना जा सकता है। स्वाभाविक है कि वहाँ भैंस प्रजाति की बहुतायत होगी। यह भी संभव है की यह किसी समूह की टोटेम पहचान हो जिसके आधार पर उस स्थान को नाम मिला। क्या देश के एक खास क्षेत्र को काऊबैल्ट या गोपट्टी नहीं कहते ? भैंस शब्द ‘महिष’ से निकला है जिसमें शक्ति, बल का भाव है। मूलार्थ है सूर्य। स्वाभाविक है कि कृषि के लिए जिस काल में भैंसे का प्रयोग होने लगा तब शक्ति व बल के आधार पर उसे भी यही नाम मिल गया।
यूँ महिष का मूल भी मह् से है जिससे महान शब्द बनता है। महान यानी बलवान, शक्तिवान। बिहार में महिषी, मध्यप्रदेश में भैंसदेही, भैंसाखेड़ी गढ़वाल में भैंसगाँव, पूर्वांचल में भैंसाघाट, निमाड़ में माहिष्मती, पश्चिम बंगाल में महिषादल, महेश्वर, मराठवाड़ा में म्हैसमाळ और कर्णाटक में मैसूर (महिषासुर) जैसे स्थान-नामों से क्या साबित होता है? यही कि हमारे सांस्कृतिक इतिहास में महिष एक महत्वपूर्ण जनजातीय प्रतीक रहा है।
मैं अनेक जनजातीय क्षेत्रों में गया हूँ। उन समाजों में बड़ादेव (बूढादेव< बुड्ढ < वुड्ढ < वृद्ध= सर्वोच्च) की पूजा होती है। यह बड़ादेव मूलतः शिव हैं। गौर करें, शिव को देवाधिदेव या महादेव कहते हैं। क्या ये नाम जनजातीय बड़ादेव का ही रूपान्तर नहीं? शिव जो स्वयं बलशाली हैं, ‘महा’ हैं, महेश कहलाते हैं। महेश यानी महा + ईश। वही बड़ादेव का रूपान्तर। पर मूल महेश को देखें तो यह महिष से उद्भूत है। यूँ भी महिष का अर्थ शक्तिवान, बलवान है। महिषी उसका स्त्रीवाची है। प्राचीनकाल में राजमहिषी इसीलिए रानी को कहते थे। शिव का वाहन नन्दी है।
‘साण्ड’ शब्द ‘षण्ड’ से उद्भूत है जिसका अर्थ है शिव। जो जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं। प्रायः असुरों ने उन्हें तप से पाया है। अनेक कथाओं में शिव स्वयं संतान बनकर भक्तों को कृतार्थ करते नज़र आते हैं। उन्हें असुरों का देव भी कहा गया है। शिव अगर संहारक हैं तो संहार का सामना भी तो करते होंगे? गौर करें हमारे गोत्रनामों में भी भैंसा है। शाण्डिल्य गोत्र में भी यही षण्ड हो सकता है, गो कि इससे मिलते जुलते ऋषिनाम भी है। सण्डीला नाम का एक कस्बा है। राजस्थान में सांडेराव भी है। और भी मिल जाएंगे। बंगालियों का सान्याल उपनाम, शाण्डिल्य का ही रूपान्तर है।
गौवंश में भैंसे की ही तरह बलशाली बैल होता है। बल से ही बैल नाम पड़ा है। यह बैल भी गाय की तरह ही संस्कृति पर अपनी छाप छोड़ता है। तो संक्षेप में इतना ही कहना चाहूँगा कि धर्म कठिन रास्ता है। किसी भी विवाद को उस रास्ते पर न ले जाया जाए। हम संस्कृति को समझें जो निरन्तर परिवर्तनशील है। बेहद सावधानी से हमें इतिहास की परतों को टटोलते हुए उसके उन सिरों का परीक्षण करना होता है जो वर्तमान तक आते हैं। ऐसा न करने पर हमारे सामने भविष्य का रास्ता भी दिशाहीन हो जाता है।